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शुक्रवार, 8 मई 2009

धुआं बना कर फिजा में उड़ा दिया हमको

मीर नज़ीर बा$करी जाने-माने शायर हैं। इनकी शायरी को आपने जगजीत सिंह की आवाज़ भी सुना होगा। जगजीत जी की आवाज़ में गाई हुई उनकी $गज़लें रूह की गहराइयों को छूने वाली हैं। कुछ समय पहले वह जालंधर में आए थे। यहां पर हमारी साथी रूहे सना हसन ने उनके साथ गुफ्तगू की। उस गुफ्तगू के साथ-साथ आप उनकी दो रचनाओं को भी गुनगुनाइए...


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ग़ज़लें /मीर नज़ीर बाकरी
है सब नसीब की बातें खता किसी की नहीं
ये जि़ंदगी है बड़ी बेव$फा किसी की नहीं।

तमाम ज$ख्म जो अंदर तो चीखते हैं मगर
हमारे जिस्म से बाहर सदा किसी की नहीं।

वो होंठ सी के मेरे पूछता है चुप क्यों हो
किताबे-ज़ुर्म में ऐसी सज़ा किसी की नहीं।

बड़े-बड़े को उड़ा ले गई है त$ख्त केसाथ
चरा$ग सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं।

'नज़ीरÓ सबकी दुआएं मिली बहुत लेकिन
हमारी मां की दुआ-सी दुआ किसी की नहीं।

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समझकर फूल सी टूटू हुई कुछ पत्तियां उसने
मसल कर फैंक दीं हैं, जाने कितनी तितलियां उसने।

पहनकर अपने हाथों में सुनहरी चूडिय़ां उसने
बढ़ा दी है किसी मज़दूर की बेचेनियां उसने।

किसी इंसान ने उसकी ज़रूरत जबन की पूरी
दरिंदों के हाथें ही बेच दी फिर लड़कियां उसने।

वो एक पंछी जिसे सय्याद ने $कैदी बनाया था
सुना है तोड़ दी सारी कऊस की तीलियां उसने।

हवा ऐसी चली थी सारे घर में $खा$क भर देती
$गनीमत है कि पहले बंद कर ली खिड़कियां उसने।

जलन दिल की बुझाने को भिगोकर अपने अश्$कों से
मेरे सूखे हुए होंठों पे रख दी उंगलियां उसने।

'नज़रÓ अब तो सकून-ए-जि़ंदगी की जुस्तजू छोड़ो
तुम्हारे नाम लिख दी है सभी बेचेनियां उसने।
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गुफ्तगू
वह बेनजीर शायर हैं, क्योंकि उनका नाम है मीर न•ाीर बा$करी। मेरी मुराद उस बेबाक और हौसलेमंद शायर से है, जिसकी शायरी में $ख्यालात का बांकपन तो है, पर ल$फ्जों की बा•ाीगिरी नहीं। वह जो कुछ कहता है, $खूब कहता है। यह वही शायर हैं, जिनकी $ग•ालों को जगजीत सिंह ने अपनी रुहानी आवा•ा देकर एक हंगामा बरपा कर दिया था। सुरों की मल्लिका लता जी ने अपनी आवा•ा में 'धुंआ बना कर फि•ाा में उड़ा दिया मुझकोÓ गाकर उन्हें धुआं बनाकर उड़ाया नहीं, बल्कि सूरज की रोशनी बनाकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। आज वही अ•ाीम शायर मेरे रू-ब-रू है। आइए उनसे पूछते हैं कुछ सवाल उनकी •िांदगी और शायरी के स$फर के बारे में-
शायरी कब से शुरू की?
मेरे अंदर शायर कब से सांसे ले रहा था, इसका तो मुझे अंदा•ाा नहीं, मगर हां जब पता चला, तो वह साल 1962 का था। इसी साल मैंने अपना पहला शेर कहा, जो मैं आपको भी सुनाना चाहूंगा-
बाद मुद्दत के बाद सोया हूं $गमों से कह दो
अब कभी आन के मुझको  परेशां करना।

दुनिया के ग्लोबल विलेज बनने के बाद एक शायर सि$र्फ मु$कामी शायर नहीं रह जाता। उसका वास्ता बाहर के मुल्कों के शायरों से भी पड़ता है। ऐसे में आपको हिन्दुस्तान और यहां से बाहर की उर्दू शायरी में क्या $$र्क महसूस होता है?
शायरी के शौ$क की वजह से मुझे इंग्लैंड, अमरीका, दुबई, शारजा, अबु धाबी, मस्कट, कूवैत और दोहा-कतर के अलावा बंग्लादेश और पाकिस्तान जाने का मौ$का मिला। इन मुल्कों में घूमने के बाद मुझे अहसास हुआ कि हिन्दुस्तान में अच्छे शायरों की कमी नहीं है, लेकिन जिन शायरों को मीडिया कवरेज मिल रही है, उनमें वह म्यार नहीं है, जो होना चहिए। पहले शायरी मैसेज देने का •ारिया होती थी, लेकिन अब लोगों ने इसे मनोरंजन का •ारिया बना लिया है। यह माहौल बाहर अभी कम है। वहां लोग मुशायरों में य$कीनी तौर पर अपनी रुहानी गी•ाा, •ाुबान और कल्चर समझ कर शरी$क होते हैं। वहां मुशायरों में आने वाले लोग पढ़े-लिखे होते हैं और हर मुद्दे पर अपनी राय रखते हैं। इसलिए म्यारी शेरों पर म्यारी दाद दी जाती है।

आज हिन्दुस्तान की उर्दू शायरी को किस ार से देखते हैं?
अब शायरी पर प्रोफैश्नलि•म हावी हो रहा है। शायरी ने अपना म्यार $खत्म कर दिया है क्योंकि उसके सामने सुनने वालों के म्यार की मजबूरी थी। उन्हें न हिंदी आती है और न उर्दू। हल्के शेरों पर भी शायर को दाद मिल जाती है। ऐसे में •ाुबान की तबली$ कौन करे?
हिन्दुस्तान में उर्दू का क्या मुस्त$कबिल देखते हैं?
•ाुबान किसी म•ाहब से नहीं पहचानी जाती, लेकिन उर्दू के साथ यह बद$िकस्मती रही कि उसे मुसलमानों के पल्ले बांध दिया गया और मुसलमानों ने उसे अपनाया नहीं। हालत तो यह है कि उर्दू के ठेकेदारों ने भी इससे कुछ इस तरह से मोहब्बत निभाई कि उनकी ओलादें उर्दू से नावाकि$फ हैं।
छोड़कर अपनी •ाुबा सबकी जबानें सीख लीं,
इसी $खता ने हमको अपने घर में गूंगा कर दिया
वैसे पंजाब के लिए उर्दू के दामन को बचाए रखना इतना मुश्किल नहीं है। इसका कारण यह है कि इस •ाुबान के दामन को जीतना इसने भरा है, उसका मु$काबला कोई दूसरा सूबा नहीं कर सकता।

आज देश के राजनीतिक महौल में एक शायर $खुद को कहां पाता है?
इस व$क्त की सबसे बड़ी बदनसीब है कि हमारे पास कोई प्योर पॉलीटिकल शायर नहीं है। आज शायर अपने इर्द-गिर्द का •िाक्र तो करता है, लेकिन उस पर टिप्पणी करने वाला कोई नहीं है। शायद शायर $खुद को अकेला समझ रहा है या हो सकता है वह अपनी सच्चाई का $कत्ल न करना चाहता हो। मुझे भी आप पॉलीटिकल शायर नहीं कह सकते, लेकिन मैंने भी कुछ पॉलीटिकल शेर लिखे हैं-
तुम अपनी रोशनियों पर $गुरूर मत करना
चरा सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं।
अपनी •िांदगी के बारे नें कुछ बताइए।
मैं देश के बड़े सूबों में से एक उत्तर प्रदेश में पीतल नगरी कहे जाने वाले मुरादाबाद से हूं। यहां कभी पृथ्वी राज चौहान की राजधानी रहे तहसील संभल से चौदह किलोमिटर दूर एक गांव है, नेमतपुर, मेरा रिश्ता वहीं से है। मैंने लखनऊ से अपनी पढ़ाई पूरी की, जिस वजह से इसे मैं अपना तालीमी वतन कहता हूं। एक शायर $खुबसूरती में दिलचसपी न ले, ऐसा तो हो नहीं सकता। मैंने भी इस $खुबसूरती को घरों में जगह दी और मुंबई आकर इंटीरियर डैकोरेशन की कंपनी में मैनेजर रहा। मैंने रेडियो सैलून, श्रीलंका के लिए भी कमर्शियल किए।

आपकी $ालों को लोगों ने का$फी पसंद किया है। कई मशहूर लोगों नें भी इन्हें अपनी आवा दी है। इस बारे में हमें कुछ बताइए।
मेरी लिखी $ग•ालों को जगजीत सिंह, लता मंगेशकर, अजी•ा ना•ाा, राज कुमार रि•वी, इंद्रानी रि•वी, गौरव चोपड़ा और शीला वर्मा ने अपनी म$खमली आवा•ाों से सजाया है। जगजीत सिंह की आवा•ा में 'अपनी आंखों के समंदर में उतर जाने दे और 'याद नहीं क्या -क्या देखा था, सारे मं•ार भूल गएÓ और लता जी की आवा•ा में 'धुंआ बना कर फि•ाा में उड़ा दिया मुझकोÓ को लोगों ने काफी पसंद किया है।

पंजाब से आपका ताल्लु कैसा रहा?
पंजाब से मुझे मोहब्बत है। इसी •ामीं ने मुझे अपनी पहचान बनाने में मदद की। 70 के दशक में जब मैंने लिखना शुरू ही किया था, तो यहां से निकलने वाले दो बड़े और मशहूर अ$खबारों ने मुझे का$फी छापा।

दूसरे उभरते शायरों को क्या सलाह देना चाहेंगे?
शायरी की बुनियाद फिक्र और ओब्सर्वेशन होती है। ओब्सर्वेशन के लिए आपके पास सोच और पढ़ाई होनी चाहिए। इसलिए जितना •यादा किसी दूसरे शायर को पढ़ सकें, उतना ही अच्छा है। कहते भी है कि चरा$ग से चरा$ग जलता है। कहीं ऐसा न हो कि कोई चरा$ग जल ही न सके।

मंगलवार, 31 मार्च 2009

कवि‍यित्री से बातें

युवा पंजाबी कवियित्री इंद्रजीत नंदन की पुस्तक 'शहीद भगत सिंह : अनथक जीवन गाथाÓ को साल 2008 के प्रतिष्ठित 'संस्कृति पुरस्कारÓ मिला है। राष्ट्रीय स्तर पर दिया जाने वाला यह पुरस्कार 'संस्कृति प्रतिष्ठान, नई दिल्लीÓ द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय युवा प्रतिभाओं को दिया जाता है। पूरे 29 साल बाद यह पुरस्कार पंजाबी को मिला है। पेश है कवियित्री इंद्रजीत नंदन से एक मुलकात...

भगत सिंह के जीवन पर लंबी कविता लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
मैंने २००२ में भगत सिंह पर एक कविता लिखी थी 'फांसी से पहले।Ó यह कविता मेरी पुस्तक 'चुप दे रंगÓ में शामिल है। इसे लिखते हुए मेरे मन में आया कि शायद मैं भगत सिंह पर नंबी कविता लिख सकती हूं। वह कविता सि$र्फ एक मौ$के के बारे में थी, जब भगत सिंह की अंतिम मुला$कात अपने घर वालों से होती है और $फासी के त$ख्ते तक जाने का इसमें चित्रण था। तभी मुझे महसूस हुआ कि भगत सिंह को समझना/समझाना छोटी कविता के बस की बात नहीं। उसके बाद मैंने भगत सिंह की सोच को समझने के लिए अध्ययन शुरू किया। इसी दौरान २००४ में एक लंबी कविता 'तेरी काया मेरे शब्दÓ लिखी गई। इसके बाद मुझे लगा कि शायद मैं लिख सकती हूं और मैंने इस पर काम शुरू कर दिया। इस पुस्तक को फाइनल करने तक मैंने इसे चार लिखा और तीन साल तक इस पर काम करती रही।

भगत सिंह को ही क्यों चुना?
भगत सिंह पर पंजाबी कविता में उतना काम नहीं हुआ, जितनी बड़ी उस महान शहीद की कुर्बानी और सोच थी। सि$र्फ प्रो दीदार सिंह के $िकस्से के अलावा किसी ने ज़्यादा काम नहीं किया। अगर हुआ भी है, तो वह काल्पनिक या आज के संदर्भ में भगत सिंह के पात्र को चित्रित करके ही हुआ है। दूसरी बात यह भी हो सकता है, मैंने अपनी उम्र की पहली कविता भी भगत सिंह के बारे में लिखी थी और यह बचपन से ही मेरे अवचेतन में कहीं पड़ा हो।

आपने इसे परंपरागत छंद में लिखा है। कोई मुश्किल नहीं आई?
थोड़ी मुश्किल तो आई, क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को कविता में पिरोना ज़रा मुश्किल होता है। दूसरा, इसे लिखने से पहले मैंने छंदों को सीखा।

इस लंबी कविता के ज़रिए आपने सि$र्फ भगत सिंह की जीवनी ही पेश किया है, जबकि इस संबंध में कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। फिर इस पुस्तक की क्या प्रासंगिकता आप देखती हैं?
उपलब्ध पुस्तकों के बारे में यह है कि वे पुस्तकें कविता में उपलब्ध नहीं हैं। जो हैं, वह भगत सिंह की पूरी जि़ंदगी या विचारधारा को पेश नहीं करतीं। मैंने इस पुस्तक में भगत सिंह के पारिवारिक परिदृश्य को बहुत पीछे से समझने और जानने की कोशिश की है। इस परिवेश का भगत सिंह के जीवन पर कितना और कैसा प्रभाव रहा, इसे भी मैंने समझने का प्रयास किया है। बा$की मैं अपने आप को कवियत्री मानती हूं, इसलिए स्वाभाविक है कि कविता ही रचूंगी।

आपकी कविताएं कथित नारीवाद से हटकर औरत की सामाजिक स्थिति और भूमिका के बारे में अलग कोण से बात करती हैं। इसके बारे में कुछ कहना चाहेंगी?
दरअसल, न ही नारीवार से और न ही किसी और वाद से मेरा कोई संबंध है। मैं वादों से मुक्त होकर जीने, विचरण करने और लिखने की आदी हूं। कोई भी वाद मुझे अच्छा नहीं लगता। इसलिए समाज में रहते हुए, जो मैं आंतरिक और बाहरी तौर पर महसूस करती हूं, वही लिखती हूं। मैं इंसान होने पर और इंसानियत में ही भरोसा करती हूं। बा$की ज़रूरी नहीं कि सि$र्फ नारी होने के कारण सभी औरतों का अनुभव एक जैसा ही हो।

कविता और समाज के रिश्ते को कैसे देखती हैं?
कविता समाज से टूटकर नहीं लिखी जा सकती। भले ही आप अंतरमुखी हों या बाहरमुखी, समाज से दूर नहीं हो सकते। मेरे $ख्याल में कवि ज़्यादा संवेदनशील होता है और वह हर घटना को ज़्यादा गहराई से महसूस करता है। जो उसके ज़हन में है, वह कविता में आना स्वभाविक है। भले ही उसमें कल्पना भी शामिल हो, लेकिन पैदा तो विचार से ही हुई है। विचार-प्रक्रिया भी हमारी स्मृतियों का ही हिस्सा है। कवि जो देखेगा, जो बिंब बनेंगे, कविता में आएंगे ही। कवि समाज से बेमुख नहीं हो सकता। कवि और कविता दोनों ही समाज के प्रति जि़म्मेदार हैं।

कविता आपके लिए क्या है?
कविता मेरे लिए जीने का रास्ता है। मैं कविता के बिना अधूरी हूं। इसके बिना मैं जी नहीं सकती या कह लें, कविता ही मेरी जि़ंदगी है।
- नव्यवेश नवराही
(दैनिक भास्‍कर, पंजाब के कला साहित्‍य अंक से साभार)

शनिवार, 21 मार्च 2009

सुखवंत के शब्‍द रंग

सुखवंत पंजाब के चित्रकार कवि हैं। कागज़ पर शब्‍दों के रंग उकेरते हैं। ज्‍यादा छपने में उनका विश्‍वास नहीं। लिखते हैं और अपनी डायरी में नोट करके संतुष्‍ट रहते हैं। पंजाबी की कई पत्र्िकाओं में उनकी पंजाबी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. अपनी पंजाबी ग़ज़लों की पुस्‍तक की तैयारी में भी लगे हुए हैं. कुछ दिन पहले उनकी डायरी से मुझे हिंदी की कुछ ग़ज़लें मिलीं, तो मैंने उन्‍हें आपके लिए चुरा लिया. उनकी रचनाओं के बारे में उन्‍हीं के शब्‍दों में कहूं तो

जल रंगों से आग बनाया करता हूं
ओर फिर उसमें जलने से भी डरता हू

आप भी उनके अनुभवों से गुज़रें
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गज़लें/सुखवंत
जम चुकी बर्फ से पानी को उछालूं कैसे।
अपने चेहरे को मैं दर्पण से निकालूं कैसे।

हवा तो रोज़, कभी आंधियां भी चलती हैं,
बदन है रेत की दीवार संभालूं कैसे।

मेरे रंगों में तेरे नक्श उतर सकते हैं,
तेरी आवाज़ को तस्वीर में ढालूं कैसे।

शहर के बारे में अब सोच के चुप रहता हूं,
आग जंगल की है, सीने में लगा लूं कैसे।

मैं तो अब तक यूं ही बेमोल बिका हूं और अब,
अपने कंधों पे यह बाज़ार उठा लूं कैसे।
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2
होश में हूं पर कुछ कुछ आंखें मीचे हूं।
मस्ती में हंू ना आगे ना पीछे हूं।

मेरा हर इल्ज़ाम मेरे सिर है फिर भी,
जो कुछ हंू मैं कब अपनी मजऱ्ी से हूं।

तेरी ही तस्वीर उभरती है अक्सर,
का$गज़ पे इक खाका जब भी खींचे हूं।

इनमें तब तक फूल व$फा के खिलते हैं,
आंसू से मैं जब-जब आंखें सीचे हूं।

पेड़ तो शायद इस धरती का आंचल हैं,
धूप कड़ी है मैं आंचल के नीचे हूं।

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3
रोशनी के लिए दीवार में झरोखा है।
यह बात और है इसमें भी कोई धोखा है।

इस चकाचौंध से उभरें तो ज़रा $गौर करें,
इन उजालों ने कहां चांदनी को रोका है।

शो$ख रंगों के तिलिस्म को अंधेरा ना लिखूं,
आज फिर सर्द हवाओं ने मुझे टोका है।

ह$की$कतों की धूप से बचाकर रखता है,
मन की परछाइयों का दर्द भी अनोखा है।

मैंने दीवार गिराई है चलो मान लिया,
मेरे माथे पे मगर कील किसने ठोका है।
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4
मन के मौसम को बदल दें सुबह को शाम करें।
अपने साए में कहीं बैठ कर आराम करें।

गुनगुनी धूप के मासूम से उजाले को,
नज़र में ऊंघती अंधी गु$फा के नाम करें।

चलो धरती को फिर से झाड़कर बिछाते हैं,
बेकार फिरने से अच्छा है कोई काम करें।

अब उनके वासते आबो-हवा ही का$फी है,
क्या ज़रूरी है कि नस्लों का $कत्ले-आम करें।

अगर वो सिर है तो छोड़ो वो बिक ही जाएगा,
अगर हैं पैर तो बेड़ी का इंतज़ाम करें।

यह मानते हैं कि रूहें सदा सलामत हैं,
वो इनमें रहती हैं, जिस्मों को भी सलाम करें।

आज की रात चलो म$खमली अंधेरों में,
घरों को छोड़कर सड़कों को बेआराम करें।

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5

रास्तों में या अपने घर होगा।
इन अंधेरों में वो किधर होगा।

इस समागम के बाद लगता है,
आग में जल रहा शहर होगा।

चंद लोगों की साजिशों का असर,
क्या $खबर थी कि इस $कदर होगा।

मैं किसी बात से ना डर जाऊं,
उसको इस बात का भी डर होगा।

हादसा फिर भी हादसा है जनाब,
लाख बचिएगा वो मगर होगा।
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संपर्क
मोबाइल- 098720 25360
sukhwantartist@gmail.com

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गुरुवार, 8 जनवरी 2009

मोहब्‍बत भरी दो नज्‍में

पंजाबी के वरिष्ठ कवि डॉ. जगतार जितना भारतीय पंजाब में प्रसिद्ध हैं, उससे कहीं ज़्यादा उन्हें पाकिस्तानी पंजाब में मान्यता दी जाती है। साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त डॉ. जगतार नज्‍म व ग़ज़ल लिखते हैं. उनकी प्रमुख पुस्‍तकों के नाम हैं- प्रवेश द्वार, चनुक्‍करी शाम, जजीरियां विच्‍च घिरिया समुंदर, अधूरा आदमी, लहू के नक्‍श,‍ दुध पत्‍थरी और तलखियां रंगीनियां. ये सभी पुस्‍तकें चेतना प्रकाशन, पंजाबी भवन, लुधियाना, पंजाब द्वारा प्रकाशित पंजाबी पुस्‍तक अणमुक सफर में शामिल हैं. पेश हैं उनकी दो नज्‍में
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रिश्तों के पिंजरे
वह मेरे जिस्म के इस पार झांकी
उस पार झांकी
और कहने लगी,
'तुम मेरे बाप जैसे भी नहीं
जो दारू की नदी तैर कर
डुबो देता है उदासी में घर सारा।
तुम मेरे पति जैसे भी नहीं
जो मेरी रूह तक पहुंचने से पहले ही
बदन में तैर कर
नींद में डूब जाता है।
तुम मेरे भाई जैसे भी नहीं
जो चाहता है
कि मैं बेरंग जीवन ही गुज़ारूं
मगर फिर भी
तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो।
मगर क्या नाम रखूं इस रिश्ते का
मैंने जो रिश्ते जिए, पिंजरे हैं
या कब्रें हैं
या खंडहर हैं।

हैंडल विद केयर
मेरे यहां आने से पहले
वह कॉलेज में थी।
अब भी उसके जिस्म और माज़ी की खुशबू
इस तरह लगता है जैसे
हर जगह मौजूद है।
जो कभी फूलों से, कमरे से
कभी माहौल से आती रहती है।
इस तरह लगता है कभी कैंटीन में
कॉफी की उठ रही भांप में
उसका चेहरा बन रहा है
और कभी लगता है पीरियड समाप्त करके
आ रही है वह उदासी।
और कभी लगता है कि बारिश में
खंबे के साथ लगी
वह किसी का इंतज़ार कर रही है
(किसका?)
मेरी जिंदगी में वह जब हुई दाखिल
मैंने कभी पूछा ही नहीं था।
न ही मेरा है स्वभाव
क्योंकि इस तरह के सवालों से
औरत तिड़क जाती है हमेशा।
पंजाबी से अनुवाद- नव्‍यवेश नवराही