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मंगलवार, 31 मार्च 2009
कवियित्री से बातें
युवा पंजाबी कवियित्री इंद्रजीत नंदन की पुस्तक 'शहीद भगत सिंह : अनथक जीवन गाथा' को साल 2008 के प्रतिष्ठित 'संस्कृति पुरस्कारÓ मिला है। राष्ट्रीय स्तर पर दिया जाने वाला यह पुरस्कार 'संस्कृति प्रतिष्ठान, नई दिल्लीÓ द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय युवा प्रतिभाओं को दिया जाता है। पूरे 29 साल बाद यह पुरस्कार पंजाबी को मिला है। पेश है कवियित्री इंद्रजीत नंदन से एक मुलकात...
भगत सिंह के जीवन पर लंबी कविता लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
मैंने 2002 में भगत सिंह पर एक कविता लिखी थी 'फांसी से पहले।Ó यह कविता मेरी पुस्तक 'चुप दे रंग' में शामिल है। इसे लिखते हुए मेरे मन में आया कि शायद मैं भगत सिंह पर नंबी कविता लिख सकती हूं। वह कविता सि$र्फ एक मौ$के के बारे में थी, जब भगत सिंह की अंतिम मुला$कात अपने घर वालों से होती है और $फासी के त$ख्ते तक जाने का इसमें चित्रण था। तभी मुझे महसूस हुआ कि भगत सिंह को समझना/समझाना छोटी कविता के बस की बात नहीं। उसके बाद मैंने भगत सिंह की सोच को समझने के लिए अध्ययन शुरू किया। इसी दौरान २००४ में एक लंबी कविता 'तेरी काया मेरे शब्दÓ लिखी गई। इसके बाद मुझे लगा कि शायद मैं लिख सकती हूं और मैंने इस पर काम शुरू कर दिया। इस पुस्तक को फाइनल करने तक मैंने इसे चार लिखा और तीन साल तक इस पर काम करती रही।
भगत सिंह को ही क्यों चुना?
भगत सिंह पर पंजाबी कविता में उतना काम नहीं हुआ, जितनी बड़ी उस महान शहीद की कुर्बानी और सोच थी। सि$र्फ प्रो दीदार सिंह के $िकस्से के अलावा किसी ने ज़्यादा काम नहीं किया। अगर हुआ भी है, तो वह काल्पनिक या आज के संदर्भ में भगत सिंह के पात्र को चित्रित करके ही हुआ है। दूसरी बात यह भी हो सकता है, मैंने अपनी उम्र की पहली कविता भी भगत सिंह के बारे में लिखी थी और यह बचपन से ही मेरे अवचेतन में कहीं पड़ा हो।
आपने इसे परंपरागत छंद में लिखा है। कोई मुश्किल नहीं आई?
थोड़ी मुश्किल तो आई, क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों को कविता में पिरोना ज़रा मुश्किल होता है। दूसरा, इसे लिखने से पहले मैंने छंदों को सीखा।
इस लंबी कविता के ज़रिए आपने सि$र्फ भगत सिंह की जीवनी ही पेश किया है, जबकि इस संबंध में कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। फिर इस पुस्तक की क्या प्रासंगिकता आप देखती हैं?
उपलब्ध पुस्तकों के बारे में यह है कि वे पुस्तकें कविता में उपलब्ध नहीं हैं। जो हैं, वह भगत सिंह की पूरी जि़ंदगी या विचारधारा को पेश नहीं करतीं। मैंने इस पुस्तक में भगत सिंह के पारिवारिक परिदृश्य को बहुत पीछे से समझने और जानने की कोशिश की है। इस परिवेश का भगत सिंह के जीवन पर कितना और कैसा प्रभाव रहा, इसे भी मैंने समझने का प्रयास किया है। बा$की मैं अपने आप को कवियत्री मानती हूं, इसलिए स्वाभाविक है कि कविता ही रचूंगी।
आपकी कविताएं कथित नारीवाद से हटकर औरत की सामाजिक स्थिति और भूमिका के बारे में अलग कोण से बात करती हैं। इसके बारे में कुछ कहना चाहेंगी?
दरअसल, न ही नारीवार से और न ही किसी और वाद से मेरा कोई संबंध है। मैं वादों से मुक्त होकर जीने, विचरण करने और लिखने की आदी हूं। कोई भी वाद मुझे अच्छा नहीं लगता। इसलिए समाज में रहते हुए, जो मैं आंतरिक और बाहरी तौर पर महसूस करती हूं, वही लिखती हूं। मैं इंसान होने पर और इंसानियत में ही भरोसा करती हूं। बा$की ज़रूरी नहीं कि सि$र्फ नारी होने के कारण सभी औरतों का अनुभव एक जैसा ही हो।
कविता और समाज के रिश्ते को कैसे देखती हैं?
कविता समाज से टूटकर नहीं लिखी जा सकती। भले ही आप अंतरमुखी हों या बाहरमुखी, समाज से दूर नहीं हो सकते। मेरे $ख्याल में कवि ज़्यादा संवेदनशील होता है और वह हर घटना को ज़्यादा गहराई से महसूस करता है। जो उसके ज़हन में है, वह कविता में आना स्वभाविक है। भले ही उसमें कल्पना भी शामिल हो, लेकिन पैदा तो विचार से ही हुई है। विचार-प्रक्रिया भी हमारी स्मृतियों का ही हिस्सा है। कवि जो देखेगा, जो बिंब बनेंगे, कविता में आएंगे ही। कवि समाज से बेमुख नहीं हो सकता। कवि और कविता दोनों ही समाज के प्रति जि़म्मेदार हैं।
कविता आपके लिए क्या है?
कविता मेरे लिए जीने का रास्ता है। मैं कविता के बिना अधूरी हूं। इसके बिना मैं जी नहीं सकती या कह लें, कविता ही मेरी जि़ंदगी है।
- नव्यवेश नवराही
(दैनिक भास्कर, पंजाब के कला साहित्य अंक से साभार)
शनिवार, 21 मार्च 2009
सुखवंत के शब्द रंग
सुखवंत पंजाब के चित्रकार कवि हैं। कागज़ पर शब्दों के रंग उकेरते हैं। ज्यादा छपने में उनका विश्वास नहीं। लिखते हैं और अपनी डायरी में नोट करके संतुष्ट रहते हैं। पंजाबी की कई पत्र्िकाओं में उनकी पंजाबी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. अपनी पंजाबी ग़ज़लों की पुस्तक की तैयारी में भी लगे हुए हैं. कुछ दिन पहले उनकी डायरी से मुझे हिंदी की कुछ ग़ज़लें मिलीं, तो मैंने उन्हें आपके लिए चुरा लिया. उनकी रचनाओं के बारे में उन्हीं के शब्दों में कहूं तो
जल रंगों से आग बनाया करता हूं
ओर फिर उसमें जलने से भी डरता हू
आप भी उनके अनुभवों से गुज़रें
-----------------------
गज़लें/सुखवंत
जम चुकी बर्फ से पानी को उछालूं कैसे।
अपने चेहरे को मैं दर्पण से निकालूं कैसे।
हवा तो रोज़, कभी आंधियां भी चलती हैं,
बदन है रेत की दीवार संभालूं कैसे।
मेरे रंगों में तेरे नक्श उतर सकते हैं,
तेरी आवाज़ को तस्वीर में ढालूं कैसे।
शहर के बारे में अब सोच के चुप रहता हूं,
आग जंगल की है, सीने में लगा लूं कैसे।
मैं तो अब तक यूं ही बेमोल बिका हूं और अब,
अपने कंधों पे यह बाज़ार उठा लूं कैसे।
------
2
होश में हूं पर कुछ कुछ आंखें मीचे हूं।
मस्ती में हंू ना आगे ना पीछे हूं।
मेरा हर इल्ज़ाम मेरे सिर है फिर भी,
जो कुछ हंू मैं कब अपनी मजऱ्ी से हूं।
तेरी ही तस्वीर उभरती है अक्सर,
का$गज़ पे इक खाका जब भी खींचे हूं।
इनमें तब तक फूल व$फा के खिलते हैं,
आंसू से मैं जब-जब आंखें सीचे हूं।
पेड़ तो शायद इस धरती का आंचल हैं,
धूप कड़ी है मैं आंचल के नीचे हूं।
------
3
रोशनी के लिए दीवार में झरोखा है।
यह बात और है इसमें भी कोई धोखा है।
इस चकाचौंध से उभरें तो ज़रा $गौर करें,
इन उजालों ने कहां चांदनी को रोका है।
शो$ख रंगों के तिलिस्म को अंधेरा ना लिखूं,
आज फिर सर्द हवाओं ने मुझे टोका है।
ह$की$कतों की धूप से बचाकर रखता है,
मन की परछाइयों का दर्द भी अनोखा है।
मैंने दीवार गिराई है चलो मान लिया,
मेरे माथे पे मगर कील किसने ठोका है।
-----
4
मन के मौसम को बदल दें सुबह को शाम करें।
अपने साए में कहीं बैठ कर आराम करें।
गुनगुनी धूप के मासूम से उजाले को,
नज़र में ऊंघती अंधी गु$फा के नाम करें।
चलो धरती को फिर से झाड़कर बिछाते हैं,
बेकार फिरने से अच्छा है कोई काम करें।
अब उनके वासते आबो-हवा ही का$फी है,
क्या ज़रूरी है कि नस्लों का $कत्ले-आम करें।
अगर वो सिर है तो छोड़ो वो बिक ही जाएगा,
अगर हैं पैर तो बेड़ी का इंतज़ाम करें।
यह मानते हैं कि रूहें सदा सलामत हैं,
वो इनमें रहती हैं, जिस्मों को भी सलाम करें।
आज की रात चलो म$खमली अंधेरों में,
घरों को छोड़कर सड़कों को बेआराम करें।
--------
5
जल रंगों से आग बनाया करता हूं
ओर फिर उसमें जलने से भी डरता हू
आप भी उनके अनुभवों से गुज़रें
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गज़लें/सुखवंत
जम चुकी बर्फ से पानी को उछालूं कैसे।
अपने चेहरे को मैं दर्पण से निकालूं कैसे।
हवा तो रोज़, कभी आंधियां भी चलती हैं,
बदन है रेत की दीवार संभालूं कैसे।
मेरे रंगों में तेरे नक्श उतर सकते हैं,
तेरी आवाज़ को तस्वीर में ढालूं कैसे।
शहर के बारे में अब सोच के चुप रहता हूं,
आग जंगल की है, सीने में लगा लूं कैसे।
मैं तो अब तक यूं ही बेमोल बिका हूं और अब,
अपने कंधों पे यह बाज़ार उठा लूं कैसे।
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2
होश में हूं पर कुछ कुछ आंखें मीचे हूं।
मस्ती में हंू ना आगे ना पीछे हूं।
मेरा हर इल्ज़ाम मेरे सिर है फिर भी,
जो कुछ हंू मैं कब अपनी मजऱ्ी से हूं।
तेरी ही तस्वीर उभरती है अक्सर,
का$गज़ पे इक खाका जब भी खींचे हूं।
इनमें तब तक फूल व$फा के खिलते हैं,
आंसू से मैं जब-जब आंखें सीचे हूं।
पेड़ तो शायद इस धरती का आंचल हैं,
धूप कड़ी है मैं आंचल के नीचे हूं।
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3
रोशनी के लिए दीवार में झरोखा है।
यह बात और है इसमें भी कोई धोखा है।
इस चकाचौंध से उभरें तो ज़रा $गौर करें,
इन उजालों ने कहां चांदनी को रोका है।
शो$ख रंगों के तिलिस्म को अंधेरा ना लिखूं,
आज फिर सर्द हवाओं ने मुझे टोका है।
ह$की$कतों की धूप से बचाकर रखता है,
मन की परछाइयों का दर्द भी अनोखा है।
मैंने दीवार गिराई है चलो मान लिया,
मेरे माथे पे मगर कील किसने ठोका है।
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4
मन के मौसम को बदल दें सुबह को शाम करें।
अपने साए में कहीं बैठ कर आराम करें।
गुनगुनी धूप के मासूम से उजाले को,
नज़र में ऊंघती अंधी गु$फा के नाम करें।
चलो धरती को फिर से झाड़कर बिछाते हैं,
बेकार फिरने से अच्छा है कोई काम करें।
अब उनके वासते आबो-हवा ही का$फी है,
क्या ज़रूरी है कि नस्लों का $कत्ले-आम करें।
अगर वो सिर है तो छोड़ो वो बिक ही जाएगा,
अगर हैं पैर तो बेड़ी का इंतज़ाम करें।
यह मानते हैं कि रूहें सदा सलामत हैं,
वो इनमें रहती हैं, जिस्मों को भी सलाम करें।
आज की रात चलो म$खमली अंधेरों में,
घरों को छोड़कर सड़कों को बेआराम करें।
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5
रास्तों में या अपने घर होगा।
इन अंधेरों में वो किधर होगा।
इस समागम के बाद लगता है,
आग में जल रहा शहर होगा।
चंद लोगों की साजिशों का असर,
क्या $खबर थी कि इस $कदर होगा।
मैं किसी बात से ना डर जाऊं,
उसको इस बात का भी डर होगा।
हादसा फिर भी हादसा है जनाब,
लाख बचिएगा वो मगर होगा।
----
संपर्क
मोबाइल- 098720 25360
sukhwantartist@gmail.com
इन अंधेरों में वो किधर होगा।
इस समागम के बाद लगता है,
आग में जल रहा शहर होगा।
चंद लोगों की साजिशों का असर,
क्या $खबर थी कि इस $कदर होगा।
मैं किसी बात से ना डर जाऊं,
उसको इस बात का भी डर होगा।
हादसा फिर भी हादसा है जनाब,
लाख बचिएगा वो मगर होगा।
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