मेरे पसंद के सूफि़यों में दूसरा नाम है सरमद। सरमद का लफ़ज़ी अर्थ 'आदि और अंत से रहित' है। जो अजर-अमर है, जो सदा जीवित है, वही सरमद है। जो समय स्थान से परे है, जो अनंत-असगाह है, वह सरमद है। सूफी दरवेश सरमद औरंगज़ेब के समय में हुआ। सबमें एक ही नूर को देखने वाला वह मस्त फ़कीर था। आधा कलमा 'लाइलाह' पढ़ता और नंगा रहता। बाहरी शरियत के उसके लिए कोई मायने नहीं थे। यही कारण था कि सत्य से समझौता न करने पर उसने शहादत का जाम पीना मंजूर किया। सरमद का सिर कलम कर दिया गया, सिर्फ़ इसलिए कि उसने कट्टर शरियत के बंधनों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। दोष यह लगाया गया कि वह पूरा क़लमा नहीं पढ़ता और नंगा रहता है। यह शरियत के खि़लाफ़ है। दिल्ली में जामा मस्जिद के सामने चबूतरे पर उसका सिर कलम किया गया। वहां अब उसका मज़ार बना हुआ है। सरमद आरमीनीया का यहूदी था। उसका जन्म ईरान के प्रसिद्ध तिजारती केंद्र काशान में हुआ। उसके पूर्वज किसी समय आरमीनीया के निवासी थे, लेकिन बाद में वे ईरान में आ बसे थे। कुछ इतिहासकारों ने उसका नाम मुहम्मद सईद माना है, जो मुस्लिम नाम है। यह भी सच है। सरमद यहूदी ख़ानदान का नौनिहाल था, जो बाद में इस्लाम में दाखि़ल हुआ। इस बात को वह ख़ुद भी स्वीकार करता है।
इस्लाम धारण करने और हिंदुस्तान आने से पहले सरमद काशान में अपना पैतृक काम व्यापार करता रहा। हिंदुस्तान में भी वह व्यापारिक सिलसिले में आया। यहां वह कई सथानों पर घूमता रहा। सरमद की जन्म तिथि के बारे में पक्की तरह नहीं कहा जा सकता। इतिहासकार उसका जन्म 1618 मानते हैं। उसका अध्ययन विशाल था। यहूदी परंपरा के अनुसार बचपन में सरमद को यहूदी धर्म-ग्रंथों के पाठ और व्याख्या में पारंगत कर दिया गया था। उसने सामी धर्मां के ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया, लेकिन उसकी प्यास न मिटी। फिर उसने इस्लामी ओर पारसी धर्म ग्रंथों का भी अध्ययन किया। सरमद का क़लाम रुबाइयों की शक्ल में प्राप्त है। रुबाई चार पक्तियों का एक छोटा काव्य रूप है। फ़ारसी के सूफी शायरों ने अपनी रचना के लिए इसी रूप को अपनाया है। सरमद ने कुल 334 रुबाइयां रची हैं। फारसी में रची गई इन रुबाइयों को प्रसिद्ध विद्वान सूबा सिंह ने पंजाबी में अनुवाद किया था। यहां उसी का हिंदी रुपांतरण पेश है-
फारसी
शाह-ओ दरवेश-ओ कलंदर दीदह ई।
सरमद-ए-सरमस्त-ओ-रुसवा रा ब-बीं
क्या तुमने बादशाह, दरवेश और कलंदर को कभी देखा ?
अगर नहीं, तो आ, मदमस्त और बदनाम सरमद को देख लो।
-----
मा सरे-खुद रा चो कोह-ओ-ज़ेरे-पा दानिस्ता ऐम
शहर-ए-दिहली रा ब-साने-करबला दानिस्ता ऐम
रफ़त मनसूर अज़ कज़ा-ओ रफ़त सरमद नीज़ हम
दाहरा रा अज़ अता-ए-किबरीया दानिस्ता ऐम
हमने अपने सिर को पहाड़ की तरह पैरों में जाना है।
हमने दिल्ली शहर को करबला जाना है
कज़ा के साथ मनसूर चला गया और सरमद भी गया समझो
हमने सूलियों फ़ासियों को रब्बी बख्शिश समझा है
-----
किसी वक़्त न दुनिय पर चैन पाया
ना ही ऐश का कभी सामान किया
दुख-ओ दर्द ने दबोचा है उम्र सारी
और धक्कों ने है परेशान किया
दौलत दुनिया की दुखों की खान होती
इसने हर तरह सदा नुकसान किया
इसकी कमी बुरी, ज़्यादा दुख देवे
सुखी इसने न कोई इंसान किया।
-----
दिखाई देता जग-जहान तो है फानी
खुशिया मना, नहीं तो क्या मनाओगे
हो शाह या कोई फ़क़ीर हो
सबने उठ संसार से जाना है
यह छोटी-सी जिंदगी मिली तुम्हें
यह न गाफली में गंवा देना
सूरत यार की रखना मन में तुम
एक पल भी न उसे भुला देना।
इस्लाम धारण करने और हिंदुस्तान आने से पहले सरमद काशान में अपना पैतृक काम व्यापार करता रहा। हिंदुस्तान में भी वह व्यापारिक सिलसिले में आया। यहां वह कई सथानों पर घूमता रहा। सरमद की जन्म तिथि के बारे में पक्की तरह नहीं कहा जा सकता। इतिहासकार उसका जन्म 1618 मानते हैं। उसका अध्ययन विशाल था। यहूदी परंपरा के अनुसार बचपन में सरमद को यहूदी धर्म-ग्रंथों के पाठ और व्याख्या में पारंगत कर दिया गया था। उसने सामी धर्मां के ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया, लेकिन उसकी प्यास न मिटी। फिर उसने इस्लामी ओर पारसी धर्म ग्रंथों का भी अध्ययन किया। सरमद का क़लाम रुबाइयों की शक्ल में प्राप्त है। रुबाई चार पक्तियों का एक छोटा काव्य रूप है। फ़ारसी के सूफी शायरों ने अपनी रचना के लिए इसी रूप को अपनाया है। सरमद ने कुल 334 रुबाइयां रची हैं। फारसी में रची गई इन रुबाइयों को प्रसिद्ध विद्वान सूबा सिंह ने पंजाबी में अनुवाद किया था। यहां उसी का हिंदी रुपांतरण पेश है-
फारसी
शाह-ओ दरवेश-ओ कलंदर दीदह ई।
सरमद-ए-सरमस्त-ओ-रुसवा रा ब-बीं
क्या तुमने बादशाह, दरवेश और कलंदर को कभी देखा ?
अगर नहीं, तो आ, मदमस्त और बदनाम सरमद को देख लो।
-----
मा सरे-खुद रा चो कोह-ओ-ज़ेरे-पा दानिस्ता ऐम
शहर-ए-दिहली रा ब-साने-करबला दानिस्ता ऐम
रफ़त मनसूर अज़ कज़ा-ओ रफ़त सरमद नीज़ हम
दाहरा रा अज़ अता-ए-किबरीया दानिस्ता ऐम
हमने अपने सिर को पहाड़ की तरह पैरों में जाना है।
हमने दिल्ली शहर को करबला जाना है
कज़ा के साथ मनसूर चला गया और सरमद भी गया समझो
हमने सूलियों फ़ासियों को रब्बी बख्शिश समझा है
-----
किसी वक़्त न दुनिय पर चैन पाया
ना ही ऐश का कभी सामान किया
दुख-ओ दर्द ने दबोचा है उम्र सारी
और धक्कों ने है परेशान किया
दौलत दुनिया की दुखों की खान होती
इसने हर तरह सदा नुकसान किया
इसकी कमी बुरी, ज़्यादा दुख देवे
सुखी इसने न कोई इंसान किया।
-----
दिखाई देता जग-जहान तो है फानी
खुशिया मना, नहीं तो क्या मनाओगे
हो शाह या कोई फ़क़ीर हो
सबने उठ संसार से जाना है
यह छोटी-सी जिंदगी मिली तुम्हें
यह न गाफली में गंवा देना
सूरत यार की रखना मन में तुम
एक पल भी न उसे भुला देना।
6 टिप्पणियां:
jitni rochak jankari utani hi khubsurat nazm haisermat ji ki,bahut badhiya post
अच्छा लगा जानना .. औरंगज़ेब पर हाल में एक किताब पढ़ी थी ..वहाँ ज़िक्र था सरमद सूफी का ..
बहुत सुखकर रहा आपको पढ़ना. बहुत रोचक जानकारी और उतनी ही उम्दा प्रस्तुति.
बहुत अच्छा लगा इन्हें पढ़ना. और सूफियों को पढ़ाइए आप.
भाई मज़ा आ गया पढ़कर और ज्ञान में भी वृद्धि हुई। आपका धन्यवाद भी और बधाई भी। हमारे ज्ञान में इज़ाफ़ा करते रहें।
बहुत ही बेहतरीन जानकारी है.... लफ्ज कम पड़ रहे हैं... सरमद के बारे में जानने की प्यास जमाने से थी बुझी तो अब भी नहीं है, लेकिन गला गीला महसूस हो रहा है।
देवेश कल्याणी
एक टिप्पणी भेजें