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रविवार, 11 अक्टूबर 2020

हकीम सनाई: एक बात ने बदल दी जीवनधारा

जीवन में कोई एक घटना किसी की जीवनधारा को कैसे बदल देती है, सूफियों के जीवन से इस बात को सही से समझा जा सकता है। लगभग हर सूफी के जीवन में ऐसी घटना का जिक्र आता है, जिसके बाद उसका जीवन पूरी तरह से बदल जाता है। ऐसी ही एक घटना सूफी हकीम सनाई के जीवन में भी है। 


हकीम सनाई के जीवन के बारे में जयादा जानकारी नहीं मिलती। उनका यह फानी दुनिया छोड़ने का सन् 1150 बताया जाता है। वे गजाना के रहने वाले थे। उस समय गजाना पर बादशाह इब्राहिम का राज था। 

एक छोटी सी घटना ने उनके जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। बताया जाता है, हकीम सनाई अपने समय के मशहूर शायर थे। उन्होंने बादशाह इब्राहिम की तारीफ में कविता लिखी और उसे सुनाने के लिए भी चल पड़े। बादशाह उस समय हिंदुस्तान पर हमला करने की जुगत में था। हिंदुस्तान की तरफ जाते हुए रास्ते में एक खुशबूदार हदीका (बगीचा) था, जहां से किसी के गाने की आवाज आ रही थी। यह आवाज लाई-खुर की थी। वह शराबी था और लोग उसे पागल समझते थे। वो गा रहा था- 'शराब लाओ और पिओ, एक जाम अंधे सुलतान के नाम'। लोगों ने कहा- यह क्या कह रहे हो? वह खिलखिलाकर हंसा और बोला- 'अंधा नहीं तो और क्या है? जिस समय उसकी जरूरत अपने वतन में है, उस समय वे दूसरे मुल्कों पर हमला करने के लिए पागल हो रहा है।' अपनी बात पूरी करके वो मस्त होकर फिर गाने लगा- 'दूसरा जाम हकीम सनाई के अंधेपन के नाम...' 

हकीम सनाई उस समय बड़े शायर का रुतबा हासिल कर चुके थे। लोगों ने ऐतराज जताया तो लाई-खुर बोला- 'यह तो और भी सही बात है। हकीम सनाई को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं कि वो किस काम के लिए पैदा हुआ है। जब खुदा के सामने पेशी होगी, तो दिखाने के लिए उसके पास कुछ नहीं होगा, सिवाए सुलतान की प्रशंसा में लिखे झूठे गीतों के।' 

यह बात जब हकीम सनाई को पता चली, तो वह हिल गए। पहली बार वे जीवन की हकीकत के रूबरू हुए। तभी वे सबकुछ छोड़कर सूफी मुर्शिद यूसफ़ हमदानी की शरण में गए। कई साल उनके साथ रहने के बाद वे मक्का गए और लौटने के बाद 'हदीकत' की रचना करने लगे। सन 1130 में यह रचना मुकम्मल हुई- जिसका नाम था- हदीकत-उल-हकीकत। इसके बारे में उन्होंने स्वयं लिखा है- जब तक इंसान के पास जबान है, यह पढ़ी जाती रहेगी। फारसी (पर्शियन) में लिखे गए इस ग्रंथ में 12 हजार दोहे हैं। यह एक गैर-साधारण रचना है। इसे समझने के लिए इसमें डूबना पड़ता है। इस रचना ने हकीम सनाई को सूफी गुरु जलालुद्दीन रूमी और अत्तार की कतार में खड़ा कर दिया।

अंग्रेजी में इसके कुछ हिस्से का अनुवाद डीएल पैंडलबरी ने 'द वर्ल्ड ऑफ ट्रुथ' नाम से किया है। इस संपूर्ण ग्रंथ का अनुवाद मेजर स्टीफन सन ने किया था। 

रविवार, 3 सितंबर 2017

अच्‍छी औरत की तलाश...


मुल्‍ला नसरुद्दीन का किस्‍सा

एक दिन मुल्ला और उसका एक दोस्त कहवाघर में बैठे चाय पी रहे थे और दुनिया और इश्क के बारे में बातें कर रहे थे. दोस्त ने मुल्ला से पूछा – “मुल्ला! तुम्हारी शादी कैसे हुई?”
मुल्ला ने कहा – “यार, मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा. मैंने अपनी जवानी सबसे अच्छी औरत की खोज में बिता दी. काहिरा में मैं एक खूबसूरत, और अक्लमंद औरत से मिला जिसकी आँखें जैतून की तरह गहरी थीं लेकिन वह नेकदिल नहीं थी. फिर बग़दाद में भी मैं एक औरत से मिला जो बहुत खुशदिल और सलीकेदार थी लेकिन हम दोनों के शौक बहुत जुदा थे. एक के बाद दूसरी, ऐसी कई औरतों से मैं मिला लेकिन हर किसी में कोई न कोई कमी पाता था. और फिर एक दिन मुझे वह मिली जिसकी मुझे तलाश थी. वह सुन्दर थी, अक्लमंद थी, नेकदिल थी और सलीकेदार भी थी. हम दोनों में बहुत कुछ मिलता था. मैं तो कहूँगा कि वह पूरी कायनात में मेरे लिए ही बनी थी…” दोस्त ने मुल्ला को टोकते हुए कहा – “अच्छा! फिर क्या हुआ!? तुमने उससे शादी कर ली!”
मुल्ला ने ख्यालों में खोए हुए चाय की एक चुस्की ली और कहा – “नहीं दोस्त! वो तो दुनिया के सबसे अच्छे आदमी की तलाश में थी.”

ओ! ऐसा है क्या?

ज़ेन मास्टर हाकुइन जिस गाँव में रहता था वहां के लोग उसके महान गुणों के कारण उसको देवता की तरह पूजते थे।
उसकी कुटिया के पास एक परिवार रहता था जिसमें एक सुंदर युवा लड़की भी थी। एक दिन उस लड़की के माता-पिता को इस बात का पता चला कि उनकी अविवाहित पुत्री गर्भवती थी।
लड़की के माता-पिता बहुत क्रोधित हुए और उनहोंने होने वाले बच्चे के पिता का नाम पूछा। लड़की अपने प्रेमी का नाम नहीं बताना चाहती थी पर बहुत दबाव में आने पर उसने हाकुइन का नाम बता दिया।
लड़की के माता-पिता आगबबूला होकर हाकुइन के पास गए और उसे गालियाँ बकते हुए सारा किस्सा सुनाया। सब कुछ सुनकर हाकुइन ने बस इतना - ही कहा – ”ओ... ऐसा है क्या?”
पूरे गांव में हाकुइन की थू-थू होने लगी। बच्चे के जन्म के बाद लोग उसे हाकुइन की कुटिया के सामने छोड़ गए। हाकुइन ने लोगों की बातों की कुछ परवाह न की और वह बच्चे की बहुत अच्छे से देखभाल करने लगा। वह अपने खाने की चिंता नहीं करता था पर बच्चे के लिए कहीं-न-कहीं से दूध जुटा लेता था।
लड़की यह सब देखती रहती थी। साल बीत गया। एक दिन बच्चे का रोना सुनकर माँ का दिल भर आया। उसने गाँव वालों और अपने माता-पिता को सब कुछ सच-सच बता दिया। लड़की के पिता के खेत में काम करने वाला एक मजदूर वास्तव में बच्चे का पिता था।
लड़की के माता-पिता और दूसरे लोग लज्जित होकर हाकुइन के पास गए और उससे अपने बुरे बर्ताव के लिए क्षमा माँगी। लड़की ने हाकुइन से अपने बच्चा वापस माँगा।
हाकुइन ने मुस्कुराते हुए बस इतना कहा – ”ओ... ऐसा है क्या?”


मंगलवार, 19 अगस्त 2008

अव्‍वल आख सुना ख़ुदा ताईं...

कादरयार
पंजाब में 'किस्‍सों' की एक अलग परंपरा है. यह परंपरा साहित्‍य तक ही सीमित नहीं, पंजाबी समाज में भी इसकी जड़ें गहरी हैं. एक समय था, जब पंजाब में मनोरंजन का साधन यह किस्‍से ही हुआ करते थे. चौपालों में इकट्ठे होकर लंबी सद लगाकर इन किस्‍सों को गाया जाता था. मध्‍यकाल में इन किस्‍सों की रचना होती है. कई साहित्‍यकार किस्‍सों के रूप में प्रेम कहानियों को पेश करते रहे. यह प्रेम कहानियां इन किस्‍सों से पहले पंजाबी जन जीवन और जन मानस को प्रभावित कर चुकी थीं. 

'किस्‍सा' शब्‍द की उत्‍तपति अरबी भाषा के 'कस' शब्‍द से हुई है, जिसके अर्थ कथा, कहानी या गाथा ही हैं. किसी घटना या कहानी को एक विशेष तरीके से पेश करने को 'किस्‍सा' कहा जाता है. यह कहानी प्रेममय, ऐतिहासक, मिथिहासिक या रोमांचक कोई भी हो सकती है. किस्‍सा मूल रूप में काव्‍य रूप है. दुनिया में प्रसिि‍द्ध प्राप्‍त कर चुके किस्‍से 'हीर राझा की रचना दमोदर ने की थी. इस रचना को पहली प्रमाणिक किस्‍सा रचना होने का श्रेय है. इसके साथ ही पीलू, हाफिज बरखुरदार और अहमद आदि ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया.

कादरयार के बारे में
यहां जिस किस्‍साकार का तआरुफ आपसे कराया जा रहा है, वो है कादरयार.
कादरयार का जन्‍म गांव माछीके, जिला गुजरांवाला (पाकिस्‍तान) में हुआञ कादरयार जाति का संधू जट्ट था. उसकी जन्‍म तिथि के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं. परंतु उसकी जन्‍म तिथि का अंदाज़ा उसकी रचना 'महराजनामा' में दिए उसके बयान से लगाया जा सकता है. प्रिंसिपल संत सिंह सेखों के मुताबिक 'महराजनामा' की रचना 1832 ईस्‍वी में हुई. इस हिसाब से वह उनका जन्‍म 1805 ईस्‍वी के नज़दीक मानते हैं. मुसलमान होते हुए भी कारदयार को हिंदू मिथिहास, इतिहास के बारे में भरपूर जानकारी थी. उसने अपने मुरशद लाल शाह से शर्रा की शिक्षा हासिल की. कादरयार की क़ब्र उसके मुरशिद की क़ब्र के पास ही बनाई गई. बताते हैं कि यह क़ब्र अब भी मौजूद है. कादरयार ने 'सोहणी म‍हीवाल', जैसे किस्‍से के अलावा हिंदू मिथिहास पर आधारित किस्‍सा 'राजा रसालू' और 'पूरन भगत' की रचना भी की.
किस्‍सा पूरन भगत पंजाबी जनमानस में रचा बसा किस्‍सा है. इस किस्‍से में वर्णित जगहें वास्‍तव में मिलती हैं. सियालकोट में पूरन के नाम का कुंआ आज भी मौजूद है. यहां किस्‍सा 'पूरन भगत' से कुछ लाइनें आपसे सांझा कर रहा हूं—


अलिफ आख सखी सियालकोट अंदर, पूरन पुत सलवान ने जाया ई.
जदों जम्‍मया राने नूं ख़बर होई, सद पंडितां वेद पड़ाया ई.
बारां बरस ना राजेया मूंह लगीं, देख पंडितां एव फरमाया ई.
कादरयार मियां पूरन भगत ताईं, बाप जम्‍मदेयां ही भोरे पाया ई.

शनिवार, 7 जून 2008

शाह-ओ दरवेश-ओ कलंदर...

मेरे पसंद के सूफि़यों में दूसरा नाम है सरमद। सरमद का लफ़ज़ी अर्थ 'आदि और अंत से रहित' है। जो अजर-अमर है, जो सदा जीवित है, वही सरमद है। जो समय स्‍थान से परे है, जो अनंत-असगाह है, वह सरमद है। सूफी दरवेश सरमद औरंगज़ेब के समय में हुआ। सबमें एक ही नूर को देखने वाला वह मस्‍त फ़कीर था। आधा कलमा 'लाइलाह' पढ़ता और नंगा रहता। बाहरी शरियत के उसके लिए कोई मायने नहीं थे। यही कारण था कि सत्‍य से समझौता न करने पर उसने शहादत का जाम पीना मंजूर किया। सरमद का सिर कलम कर दिया गया, सिर्फ़ इसलिए कि उसने कट्टर शरियत के बंधनों को स्‍वीकार करने से इंकार कर दिया। दोष यह लगाया गया कि वह पूरा क़लमा नहीं पढ़ता और नंगा रहता है। यह शरियत के खि़लाफ़ है। दिल्‍ली में जामा मस्जिद के सामने चबूतरे पर उसका सिर कलम किया गया। वहां अब उसका मज़ार बना हुआ है। सरमद आरमीनीया का यहूदी था। उसका जन्‍म ईरान के प्रसिद्ध तिजारती केंद्र काशान में हुआ। उसके पूर्वज किसी समय आरमीनीया के निवासी थे, लेकिन बाद में वे ईरान में आ बसे थे। कुछ इतिहासकारों ने उसका नाम मुहम्‍मद सईद माना है, जो मुस्लिम नाम है। यह भी सच है। सरमद यहूदी ख़ानदान का नौनिहाल था, जो बाद में इस्‍लाम में दाखि़ल हुआ। इस बात को वह ख़ुद भी स्‍वीकार करता है।

इस्‍लाम धारण करने और हिंदुस्‍तान आने से पहले सरमद काशान में अपना पैतृक काम व्‍यापार करता रहा। हिंदुस्‍तान में भी वह व्‍यापारिक सिलसिले में आया। यहां वह कई सथानों पर घूमता रहा। सरमद की जन्‍म तिथि के बारे में पक्‍की तरह नहीं कहा जा सकता। इतिहासकार उसका जन्‍म 1618 मानते हैं। उसका अध्‍ययन विशाल था। यहूदी परंपरा के अनुसार बचपन में सरमद को यहूदी धर्म-ग्रंथों के पाठ और व्‍याख्‍या में पारंगत कर दिया गया था। उसने सामी धर्मां के ग्रंथों का भी गहरा अध्‍ययन किया, लेकिन उसकी प्‍यास न मिटी। फिर उसने इस्‍लामी ओर पारसी धर्म ग्रंथों का भी अध्‍ययन किया। सरमद का क़लाम रुबाइयों की शक्‍ल में प्राप्‍त है। रुबाई चार पक्तियों का एक छोटा काव्‍य रूप है। फ़ारसी के सूफी शायरों ने अपनी रचना के लिए इसी रूप को अपनाया है। सरमद ने कुल 334 रुबाइयां रची हैं। फारसी में रची गई इन रुबाइयों को प्रसिद्ध विद्वान सूबा सिंह ने पंजाबी में अनुवाद किया था। यहां उसी का हिंदी रुपांतरण पेश है-

फारसी
शाह-ओ दरवेश-ओ कलंदर दीदह ई।
सरमद-ए-सरमस्‍त-ओ-रुसवा रा ब-बीं

क्‍या तुमने बादशाह, दरवेश और कलंदर को कभी देखा ?
अगर नहीं, तो आ, मदमस्‍त और बदनाम सरमद को देख लो।
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मा सरे-खुद रा चो कोह-ओ-ज़ेरे-पा दानिस्‍ता ऐम
शहर-ए-दिहली रा ब-साने-करबला दानिस्‍ता ऐम
रफ़त मनसूर अज़ कज़ा-ओ रफ़त सरमद नीज़ हम
दाहरा रा अज़ अता-ए-किबरीया दानिस्‍ता ऐम

हमने अपने सिर को पहाड़ की तरह पैरों में जाना है।
हमने दिल्‍ली शहर को करबला जाना है
कज़ा के साथ मनसूर चला गया और सरमद भी गया समझो
हमने सूलियों फ़ासियों को रब्‍बी बख्शिश समझा है
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किसी वक्‍़त न दुनिय पर चैन पाया
ना ही ऐश का कभी सामान किया
दुख-ओ दर्द ने दबोचा है उम्र सारी
और धक्‍कों ने है परेशान किया
दौलत दुनिया की दुखों की खान होती
इसने हर तरह सदा नुकसान किया
इसकी कमी बुरी, ज्‍़यादा दुख देवे
सुखी इसने न कोई इंसान किया।
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दिखाई देता जग-जहान तो है फानी
खुशिया मना, नहीं तो क्‍या मनाओगे
हो शाह या कोई फ़क़ीर हो
सबने उठ संसार से जाना है
यह छोटी-सी जिंदगी मिली तुम्‍हें
यह न गाफली में गंवा देना
सूरत यार की रखना मन में तुम
एक पल भी न उसे भुला देना।

सोमवार, 19 मई 2008

वजीदा कौण साहिब नूं आखै ...

सूफियों में वजीद मुझे बेहद पसंद हैं- अपनी बेबाकी और स्‍पष्‍टवादिता के कारण। यह सपष्‍टवादिता सर्वशक्तिमान को भी सीधा सवाल दागती है। वजीद ने किस काल में इस पृथ्‍वी पर विचरण किया, निश्‍चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता। ज्‍यादातर विद्वान इस मत पर सहमत हैं कि उनका समय सोलहवीं-सतरहवीं शताब्‍दी के मध्‍य का समय था। उनकी रचना से मिलते कुछ हवालों से अनुमान लगाया जाता है कि सूफ़ी वेश धारण करने से पहले वह किसी श्रेष्‍ठ फ़ौजी पद पर कार्यरत थे। वजीद की ज्‍यादा रचना श्‍लोकों के रूप में है।

वजीद के श्‍लोक

मूरख नूं असवारी, हाथी घो‍ड़ेयां
पंडित पैर प्‍यादे, पाटे जोड़ेयां
करदे सुघड़ मजूरी, मूरख दे जाए घर
वजीदा कौण साईं नो आखे, एयों नई अंझ कर।
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गउंआं देंदा घाह, मलीदा कुत्‍तेयां
जागदेयां थीं खोह के देंदा सुत्‍तेयां
चहूं कुंटी है पाणी, तालु, सर ब सर
वजीदा कौण साहिब नो आखै, एयों नई अंझ कर
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चोर जु करदे चोरी, लिआवण लुट घर।
खांदे दुध मलाई, मलीदे कुट कर।
रहंदे तेरी आस सु, जांदे भुख ‍मरि।
वजीदा कौण साहिब नो आखै, एयों नई अंझ कर।
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इकना नूं घयो खंड, न मैदा भावई।
बहुती बहुती माया चल्‍ली आवई।
इकना नाही साग, अलूणा पेट भर।
वजीदा कौण साहिब नूं आखै, एयों नई अंझ कर।
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सूफ़ी कवि वजीद के बारे में बहुत सारे साथियों की टिप्‍पणियां प्राप्‍त हुईं। ज्‍यादातर दोस्‍तों ने वजीद के श्‍लोकों का हिंदी अनुवाद देने के लिए कहा है। में यहां इन श्‍लोकों की सरल-सी व्‍याख्‍या दे रहा हूं।
श्‍लोक 1 की व्‍याख्‍या
मूर्ख को हाथी-घोड़ों पर सवारी करने के मौके मिलते हैं। पंडित यानी समझदार लोगों को पैदल ही चलने पर मजबूर होना पड़ता है और फटे हुए कपड़ों में ही गुजर-बसर करना पड़ता है। इसी तरह सुघड़ यानी मंजे हुए या समझदार लोगों को मूर्खों के पास जाकर मजदूरी करनी पड़ती है, काम करना पड़ता है। वजीद कहते हैं कि उस साईं को, ख़ुदा को कौन कह सकता है कि वह ऐसा न करके वैसा करे।

श्‍लोक 2 की व्‍याख्‍या
गौओं को घस देता है और कुत्‍तों को मलीदा यानी चूरी खाने के लिए देता है। यही नहीं, जग रहों से छीनकर सोए हुए लोगों को दे देता है। उस साहिब को कौन कह सकता है कि वह ऐसा न करे।

श्‍लोक 3 की व्‍याख्‍या
वजीद इसमें कहते हैं कि चोर चोरियां करते हैं, लोगों को लूटते हैं, दूध मलाई और चूरियां खाते हैं यानी बुरे काम करने पर भी सबसे अच्‍छा जीवन व्‍यतीत करते हैं। लेकिन जो तुम्‍हारी यानी भगवान पर विश्‍वास रखते हैं, वे भूखे मरते हैं। वजीद कहते हैं कि ऐसा करने पर भी कौन उस साहिब को, उस परमात्‍मा को कह सकता है कि वह ऐसा न करे।

श्‍लोक 4 की व्‍याख्‍याइस श्‍लोक में वजीद कह रहे हैं, दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्‍हें खाने के लिए घी, शक्‍कर और मैदे से बनी अच्‍छी-अच्‍छी वस्‍तुएं मिलती हैं, लेकिन वह उन पर भी नाक-भौं सिकोड़ते हैं। परंतु दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग हैं, जिन्‍हें पेट भरने के लिए अन्‍न का एक दाना भी नसीब नहीं होता। ऐसे में भी उस साहिब को कौन कह सकता है कि वह ऐसा न करे।