यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 18 मई 2018

ऑक्टेवियो पॉज़: मेरे हाथ तुम्हारे अस्तित्व के पर्दे खोलते हैं...


ऑक्टेवियो पॉज़ का जन्म 1914 में मैक्सीको शहर में हआ। पिता मैक्सीकन और मां स्पेनिश। बचपन के दिन वे इस तरह याद करते हैं- 'हमारा घर बड़ा था, पर उसकी दीवारें भुरभुराती थीं। जब एक कमरा गिर जाता, तो हम सभी चीजें दूसरे कमरे में ले जाते।

उन्नीस साल की उम्र में पॉज ने कविता की पहली किताब छपवाई। 1937 मे वह फाशी विरोधी कान्फ्रेंस में हिस्सा लेने स्पेन गए, जहां विश्व के तरक्कीपसंद कवियों से उसकी मुलाकात हुई।

पॉज़ अपने जीवन में दर्जनों मैग्जींस के एडीटर रहे, अनुवाद किया और कविता की चालीस से ज्यादा किताबों का सर्जन किया। वे ज़हीन फिलॉसफर थे, जिन्होंने सार्त्र के विचारों को भी चैलेंज किया।
वे अपने देश के राजदूत भी रहे और पैरिस, जनीवा, न्यूयॉर्क, सानफ्रांसिस्को और दिल्ली में भी रहे। 1968 में वो दिल्ली में ही थे, जब मैक्सीको में छात्रों के कत्लों के कारण उन्होंने इस्तीफा दिया। भारत में रहते हुए भी उन्होंने बहुत सारी कविताएं लिखीं। 1990 में उन्हें नॉबेल से नवाजा गया।

अपनी पहली कविताओं में वे मार्क्सवादी थे, किंतु अंतिम कविताओं में वे अंतर्मुखी हो चुके थे। उसके विचार थे- 'कविता हमें अति सूक्षम, अछूह तथा अगोचर के निकट लाती है और चुप की लहरों को सुनने के काबिल बनाती है, जिन्होंने धरती का दृश्य उन्नीदें से ढंककर बर्बाद किया हुआ है।

ऑक्टेवियो पॉज़ की कुछ कविताएं

छुअन

मेरे हाथ तुम्हारे अस्तित्व के पर्दे खोलते हैं
तुम्हें होने वाले नंगेज के वस्त्र पहनाने के लिए।
मेरे हाथ, तुम्हारे जिस्मों से जिस्म उधेड़ते हैं,
तुम्हारे जिस्म से एक और जिस्म ढूंढ़ने के लिए।

***

Painting: Edvard MunchGirls on the Bridge, 1899

पुल

अब और अब के बीच
मेरे और तुम्हारे दरम्यान
एक शब्द है 'पुल'
इसके भीतर जाकर
तुम अपने भीतर जाती हो 
कायनात इसे जोड़ती
और अंगूठी की तरह बंद कर देती है।
एक किनारे से दूसरे किनारे
हमेशा एक जिस्म तना रहता है
सतरंगी पींग की तरह
और मैं इस पुल की महराबों के तले सो जाऊंगा।
***

किसी के बिना

वृक्षों के बीच
कोई भी नहीं
और मुझे पता नहीं
मैं कहां चला गया हूं।

                                  - अनुवाद: एन नवराही

***

रविवार, 13 मई 2018

कालिप्सो, रूसी कवि पुश्किन की प्रेमिका...


प्रेमिकाएं /आंखों में नहीं /दिल में छुपाकर रखती हैं स्वप्न...

ग्रीक सुंदरी कालिप्सो के बारे मे ज्यादा जानकारी नहीं मिलती। यह ग्रीक नवयौवना रूसी शायर पुश्किन को अथाह प्रेम करती थी। रोमानिया के एक इलाके में ग्रीक रहते थे, जहां 1832 में तुर्की हाकिमों के खिलाफ बगावत हुई थी और कालिप्सो बग़ावतियों के साथ मिलकर लड़ी थी। पर जब बग़ावती लोगों को रूस के दक्षिण में पनाह लेनी पड़ी, तो वहां कालप्सो की पुश्किन से मुलाकात हुई थी।


वहां पुश्किन के प्रेम में जब इस ग्रीक सुंदरी का दिल टूट गया, तो वह रोमानिया लौट आई, पर दुनिया से वैरागी हो चुकी कालिप्सो की दुनिया में कोई दिलचस्पी नहीं थी। निराशा ने उसे तन और मन से त्यागी बना दिया था।
उन दिनों गिरजाघरों में औरत का प्रवेश वर्जित था, इसलिए कालिप्सो ने पुरुष के वेश में गिरजाघर में पनाह ले ली। कई साल वे गिरजे में फकीरी वेश में रही, केवल 1940 में उसकी मौत के बाद पता चला कि वो औरत थी... अमृता प्रीतम ने अपनी एक किताब में इसका जिक्र किया है।