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सोमवार, 24 नवंबर 2008

कुंवर नारायण को बधाई

वर्ष 2005 का ज्ञानपीठ पुरस्‍कार शीर्षस्‍थ कवि कुंवर नारायण को दिए जाने की घोषणा हुई है. इस मौके पर प्रस्‍तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं
पुनश्‍च मैं इस्‍तीफा देता हूं व्‍यापार से परिवार से सरकार से मैं अस्‍वीकार करता हूं रिआयती दरों पर आसान किश्‍तों में अपना भुगतान मैं सीखना चाहता हूं फिर से जीना... बच्‍चों की तरह बढ़ना घुटनों के बल चलना अपने पैरों पर खड़े होना और अंतिम बार लड़खड़ा कर गिरने से पहले मैं कामयाब होना चाहता हूं फिर एक बार जीने में ....... तबादले और तबदीलियां तबदीली का मतलब तबदीली होता है, मेरे दोस्‍त सिर्फ तबादले नहीं वैसे, मुझे ख़ुशी है कि अबकी तबादले में तुम एक बहुत बड़े अफसर में तबदील हो गए बाकी सब जिसे तबदील होना चाहिए था पुरानी दरखास्‍तें लिए वही का वही वहीं का वहीं 'कोई दूसरा नहीं' (राजकमल प्रकाशन) से साभार ............ वे इसी पृथ्वी पर हैं कुंवर नारायण कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं जरूर जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं बचाए हुए हैं उसे अपने ही नरक में डूबने से वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं इतने नामालूम कि कोई उनका पता ठीक-ठीक बता नहीं सकता उनके अपने नाम हैं लेकिन वे इतने साधारण और इतने आमफ़हम हैं कि किसी को उनके नाम सही-सही याद नहीं रहते उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे एक-दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है और सबसे मजेदार बात तो यह है कि उन्हें रत्ती भर यह अन्देशा नहीं कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी । ....... अजीब वक्त है - बिना लड़े ही एक देश- का देश स्वीकार करता चला जाता अपनी ही तुच्छताओं के अधीनता ! कुछ तो फर्क बचता धर्मयुद्ध और कीट युद्ध में - कोई तो हार जीत के नियमों में स्वाभिमान के अर्थ को फिर से ईजाद करता । ( साभार : सामयिक वार्ता / अगस्त-सितंबर, १९९३ )

रविवार, 23 नवंबर 2008

गर मुहब्बत ज़माने में है इक खता

श्रद़धा जैन की ग़ज़लें ही उनका परिचय है.
नव्‍यवेश


ग़ज़लें
आप भी अब मिरे गम बढ़ा दीजिए
मुझको लंबी उमर की दुआ दीजिए

मैने पहने है कपड़े, धुले आज फिर
तोहमते अब नई कुछ लगा दीजिए

रोशनी के लिए, इन अंधेरों में अब
कुछ नही तो मिरा दिल जला दीजिए

चाप कदमों की अपनी मैं पहचान लूं
आईने से यूँ मुझको मिला दीजिए

गर मुहब्बत ज़माने में है इक खता
आप मुझको भी कोई सज़ा दीजिए

चाँद मेरे दुखों को न समझे कभी
चाँदनी आज उसकी बुझा दीजिए

हंसते हंसते जो इक पल में गुमसुम हुई
राज़ "श्रद्धा" नमी का बता दीजिए
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जब मिटा के शहर गया होगा
एक लम्हा ठहर गया होगा

है, वो हैवान ये माना लेकिन
उसकी जानिब भी डर गया होगा

तेरे कुचे से खाली हाथ लिए
वो मुसाफिर किधर गया होगा

ज़रा सी छाँव को वो जलता बदन
शाम होते ही घर गया होगा

नयी कलियाँ जो खिल रही फिर से
ज़ख़्म ए दिल कोई भर गया होगा

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

हाथ कंगन को 'आरसी' क्‍या

हिंदी भाषा में एक भरा पूरा ब्‍लॉग जगत है. हर दिन धडाधड नए ब्‍लॉग बन भी रहे हैं. किसी भी भाषा के विकास के लिए इस तरह के काम बेहद ज़रूरी होते हैं. लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में अभी इस तरह का रुझान पैदा नहीं हुआ. हालांकि नैट पर इन भाषाओं में ब्‍लॉग बनाने की सुविधा है. पंजाबी के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है. भले ही पंजाबी लोग पूरे विश्‍व में फैले हुए हैं, लेकिन पढ़ने लिखने की बात आए, तो...
खैर, पिछले दिनों कनाडा से मित्र तनदीप तमन्‍ना ने पंजाबी भाषा में 'आरसी' नाम से ब्‍लॉग शुरू किया है. खुशी हुई कि पंजाबी में इस तरह के रुझान की शुरुआत हुई है. तनदीप स्‍वयं पंजाबी की एक अच्‍छी कवियित्री हैं. जिन लोगों को गुरमुखी स्क्रिप्‍ट पढ़नी आती हो, वह एक बार ज़रूर इस पर विजिट करें।