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शनिवार, 21 मार्च 2009

सुखवंत के शब्‍द रंग

सुखवंत पंजाब के चित्रकार कवि हैं। कागज़ पर शब्‍दों के रंग उकेरते हैं। ज्‍यादा छपने में उनका विश्‍वास नहीं। लिखते हैं और अपनी डायरी में नोट करके संतुष्‍ट रहते हैं। पंजाबी की कई पत्र्िकाओं में उनकी पंजाबी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. अपनी पंजाबी ग़ज़लों की पुस्‍तक की तैयारी में भी लगे हुए हैं. कुछ दिन पहले उनकी डायरी से मुझे हिंदी की कुछ ग़ज़लें मिलीं, तो मैंने उन्‍हें आपके लिए चुरा लिया. उनकी रचनाओं के बारे में उन्‍हीं के शब्‍दों में कहूं तो

जल रंगों से आग बनाया करता हूं
ओर फिर उसमें जलने से भी डरता हू

आप भी उनके अनुभवों से गुज़रें
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गज़लें/सुखवंत
जम चुकी बर्फ से पानी को उछालूं कैसे।
अपने चेहरे को मैं दर्पण से निकालूं कैसे।

हवा तो रोज़, कभी आंधियां भी चलती हैं,
बदन है रेत की दीवार संभालूं कैसे।

मेरे रंगों में तेरे नक्श उतर सकते हैं,
तेरी आवाज़ को तस्वीर में ढालूं कैसे।

शहर के बारे में अब सोच के चुप रहता हूं,
आग जंगल की है, सीने में लगा लूं कैसे।

मैं तो अब तक यूं ही बेमोल बिका हूं और अब,
अपने कंधों पे यह बाज़ार उठा लूं कैसे।
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2
होश में हूं पर कुछ कुछ आंखें मीचे हूं।
मस्ती में हंू ना आगे ना पीछे हूं।

मेरा हर इल्ज़ाम मेरे सिर है फिर भी,
जो कुछ हंू मैं कब अपनी मजऱ्ी से हूं।

तेरी ही तस्वीर उभरती है अक्सर,
का$गज़ पे इक खाका जब भी खींचे हूं।

इनमें तब तक फूल व$फा के खिलते हैं,
आंसू से मैं जब-जब आंखें सीचे हूं।

पेड़ तो शायद इस धरती का आंचल हैं,
धूप कड़ी है मैं आंचल के नीचे हूं।

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3
रोशनी के लिए दीवार में झरोखा है।
यह बात और है इसमें भी कोई धोखा है।

इस चकाचौंध से उभरें तो ज़रा $गौर करें,
इन उजालों ने कहां चांदनी को रोका है।

शो$ख रंगों के तिलिस्म को अंधेरा ना लिखूं,
आज फिर सर्द हवाओं ने मुझे टोका है।

ह$की$कतों की धूप से बचाकर रखता है,
मन की परछाइयों का दर्द भी अनोखा है।

मैंने दीवार गिराई है चलो मान लिया,
मेरे माथे पे मगर कील किसने ठोका है।
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4
मन के मौसम को बदल दें सुबह को शाम करें।
अपने साए में कहीं बैठ कर आराम करें।

गुनगुनी धूप के मासूम से उजाले को,
नज़र में ऊंघती अंधी गु$फा के नाम करें।

चलो धरती को फिर से झाड़कर बिछाते हैं,
बेकार फिरने से अच्छा है कोई काम करें।

अब उनके वासते आबो-हवा ही का$फी है,
क्या ज़रूरी है कि नस्लों का $कत्ले-आम करें।

अगर वो सिर है तो छोड़ो वो बिक ही जाएगा,
अगर हैं पैर तो बेड़ी का इंतज़ाम करें।

यह मानते हैं कि रूहें सदा सलामत हैं,
वो इनमें रहती हैं, जिस्मों को भी सलाम करें।

आज की रात चलो म$खमली अंधेरों में,
घरों को छोड़कर सड़कों को बेआराम करें।

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5

रास्तों में या अपने घर होगा।
इन अंधेरों में वो किधर होगा।

इस समागम के बाद लगता है,
आग में जल रहा शहर होगा।

चंद लोगों की साजिशों का असर,
क्या $खबर थी कि इस $कदर होगा।

मैं किसी बात से ना डर जाऊं,
उसको इस बात का भी डर होगा।

हादसा फिर भी हादसा है जनाब,
लाख बचिएगा वो मगर होगा।
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संपर्क
मोबाइल- 098720 25360
sukhwantartist@gmail.com

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10 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

सुखवंत जी, पंजाब के चित्रकार कवि के बारे में जाना और उनको पढना अच्‍छा लगा।

राज भाटिय़ा ने कहा…

सुखवंत जी के बारे पढ कर बहुत अच्छा लगा.
धन्यवाद

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

सुखवंत जी की ग़ज़लों से रूबरू क्रा आपने इनायत की है खास कर ये आस'आर पसंद आए....


मैं तो अब तक यूं ही बेमोल बिका हूं और अब,
अपने कंधों पे यह बाज़ार उठा लूं कैसे।
बहुत खूब...!!

चलो धरती को फिर से झाड़कर बिछाते हैं,
बेकार फिरने से अच्छा है कोई काम करें।
वाह....!!

अगर वो सिर है तो छोड़ो वो बिक ही जाएगा,
अगर हैं पैर तो बेड़ी का इंतज़ाम करें।
लाजवाब जी...!!

IBLEES ने कहा…

आपकी तुलिका को ये बंदा सजदा करता ही रहा है पर अब आपकी शायरी के आगे भी सर नवाता है। जी करता है आपको रुमाले में लपेट कर संभाल लूं।
इबलीस कपूरथला से

Ashok Ajnabi ने कहा…

सुखवंत जी, आपकी डायरी में अब तक छिपी रही ग़ज़लों के रू-ब-रू होकर लगा मन पर इंद्रधनुष के सभी रंग उतर आए हों। आप रंगों में कविता कहना और कविता में रंग भरना जानते हैं ये हम पहले से जानते हैं। पर इन्हें छिपा कर ना रखा करें।
-अशोक अजनबी

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

सुखवंत जी की ग़ज़लें पढ़ कर हैरान हो गई. चित्रकार सुखवंत को तो एक अरसे से जानती हूँ.
ग़ज़लकार सुखवंत से मिलकर अच्छा लगा. कई ग़ज़लें तो हृदय की गहराईयों को छू गईं.
नव्यवेश सुखवंत जी के इस रूप से मिलवाने का धन्यवाद! आभारी हूँ आपकी.
सुखवंत जी इतनी प्यारी गज़लों पर बधाई.
सुधा ओम ढींगरा

kavi kulwant ने कहा…

Bahut khoobsurat Gazalen..

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

सुखवंत जी के बारे में विस्‍तार से बताना और उनकी कही गजलों को सुनाना अपने आप में बहुत बेहतरीन काम है जो आपने किया है अब तक मैं सुखवंत जी की कला देखकर निहाल होता था लेकिन आज उनकी गजलें जब पढी तो दिल गद गद हो गया कि इतने महान आर्टिस्‍ट कवि का आर्शिवाद मेरे पर है। सच में जैसे वो एक सादे कागज में जान डाल देते हैं उसी तरह से उनकी गजल मेरे जैसे मुर्दा में भी जान डालने का काम करती हैं बहुत बहुत मेहरबानी इनका परिचय करवाने और इनकी इतनी खुबसूरत गजल पढवाने के लिए

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

हो सके तो सुखवंत जी की कुछ और गजल पढाओ ये मेरा आग्रह है आपसे भी और सुखवंत जी से भी बहुत बेहतरीन पोस्‍ट है ये

सहज साहित्य ने कहा…

सुखवन्त जी की ग़ज़लें दिल को चू जाती हैं ।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु